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Krishna Kant Pathak

@kkpathakias

IAS

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calendar_today07-02-2022 16:14:24

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धर्म व प्रेम दोनों का अपना शून्यवाद है, प्रेमी स्वयं को शून्य कर प्रिय में विलीन कर देना चाहता है, धार्मिक स्वयं को शून्य कर परमात्मा में विलीन करना चाहता है। परंतु आदर्श में धर्म का शून्यवाद पूर्ण है, प्रेम का शून्यवाद अपूर्ण है।

धर्म व प्रेम दोनों का अपना शून्यवाद है, 
प्रेमी स्वयं को शून्य कर प्रिय में विलीन कर देना चाहता है, 
धार्मिक स्वयं को शून्य कर परमात्मा में विलीन करना चाहता है। 
परंतु आदर्श में धर्म का शून्यवाद पूर्ण है, 
प्रेम का शून्यवाद अपूर्ण है।
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किसी ने पूछा- "आदमी नाकाम होकर भी दुखी है और कामयाब होकर भी. ऐसा क्यों?" किसी ने जवाब दिया- "क्योंकि कामयाबी आदमी के सिर चढ़ जाती है और नाकामी दिल में उतर जाती है.

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गीतकारों के लिए बहार भी एक मौसम है। यह वर्षा है कि वसंत, यह तय नहीं है। बहार उनकी वर्षा है, जो तृषा में हैं और तृप्त होकर हरित हो जाते हैं। बहार उनका वसंत है, जो तृप्ति में हैं और संतृप्त होकर उत्फुल्ल हो जाते हैं।

गीतकारों के लिए बहार भी एक मौसम है। 
यह वर्षा है कि वसंत, यह तय नहीं है। 

बहार उनकी वर्षा है, 
जो तृषा में हैं और तृप्त होकर हरित हो जाते हैं। 
बहार उनका वसंत है, 
जो तृप्ति में हैं और संतृप्त होकर उत्फुल्ल हो जाते हैं।
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किसी ने एक बार कहा- बादल है, बूंदें हैं, वर्षा है, ये तीज जरा हरियाली है। किसी ने फिर से कहा- अवकाश जरा इतवारी है, मैत्री तिथि मीतों वाली है।

किसी ने एक बार कहा- 
बादल है, बूंदें हैं, वर्षा है, 
ये तीज जरा हरियाली है। 

किसी ने फिर से कहा- 
अवकाश जरा इतवारी है, 
मैत्री तिथि मीतों वाली है।
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दोस्त से सालों बाद मिलने आया, शहर बहुत बदला-बदला दिख रहा था, पर वह वैसे ही मिला, धधा कर. मैंने पूछा- अरे, सब बदल गया, उम्र भी, अक्स भी, पर न तू बदला, न तेरी गली बदली. उसने हँस कर बस इतना कहा- दोस्त, सड़कें बदलती हैं, गलियाँ नहीं बदलतीं. और हम जरा पुराने शहर के बाशिंदे हैं।

दोस्त से सालों बाद मिलने आया,
शहर बहुत बदला-बदला दिख रहा था,
पर वह वैसे ही मिला, धधा कर.
मैंने पूछा- 
अरे, सब बदल गया, 
उम्र भी, अक्स भी, 
पर न तू बदला, न तेरी गली बदली. 
उसने हँस कर बस इतना कहा- 
दोस्त, 
सड़कें बदलती हैं, गलियाँ नहीं बदलतीं. 
और हम जरा पुराने शहर के बाशिंदे हैं।
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मैं मुस्कुराती हूँ, तब भी, जब मुझे कदंब की छाँव छोड़, यमुना में उतरते हैं कृष्ण. मैं तब भी शांतचित्त होती हूँ, जब क्रीड़ास्थल पर उनके कमरबंद से फिसल धूल में गिरने को होती हूँ, क्योंकि आभास है, हृदय को मेरे, जिसे खो जाने का भय हो, वो बाँसुरी कृष्ण की नहीं. -साभार

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"राम और श्याम" हुई सुबह, जगा कह, चहक कर- राम-राम! हुई रात, बहुत साधा, पर हूक में, निकल ही गया- हे मेरे श्याम!

"राम और श्याम"

हुई सुबह, 
जगा कह, 
चहक कर-
राम-राम! 

हुई रात, 
बहुत साधा, 
पर हूक में, 
निकल ही गया- 
हे मेरे श्याम!
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हथेली चित्रफलक बने, किसी रक्तगर्भा हिना की, यह सौभाग्य है, किंतु लेखनी तूलिका बन जाए, यह कौशल मिलता है, कुछ ही उँगलियों को। सौभाग्य यह नहीं कि हथेली फलक बनी, सौभाग्य यह भी नहीं कि उँगली बनी तूलिका, सौभाग्य यह है कि वे हथेलियां व वो उँगलियाँ, साथ हुई व रहीं, फलक व तूलिका बन कर।

हथेली चित्रफलक बने,
किसी रक्तगर्भा हिना की,
यह सौभाग्य है,
किंतु लेखनी तूलिका बन जाए,
यह कौशल मिलता है,
कुछ ही उँगलियों को।

सौभाग्य यह नहीं कि हथेली फलक बनी,
सौभाग्य यह भी नहीं कि उँगली बनी तूलिका,
सौभाग्य यह है कि वे हथेलियां व वो उँगलियाँ, 
साथ हुई व रहीं, फलक व तूलिका बन कर।
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वे एक ही किताब के दो पन्ने थे, उतनी ही दूरी थी, जितनी भूमिका व विषय सूची के बीच होती है। परंतु एक आवरण बन गया, दूसरा परिशिष्ट बन कर रह गया।

वे एक ही किताब के दो पन्ने थे, 
उतनी ही दूरी थी, 
जितनी भूमिका व विषय सूची के बीच होती है। 
परंतु एक आवरण बन गया, 
दूसरा परिशिष्ट बन कर रह गया।
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कहानी को लिखना उसका कोई किरदार भी बनना है, कविता लिखने में उसके पद्य में ही है कवित्व। उस रचनाकार ने कहा- सृजन से क्या परिवाद, उपालंभ बस यह कि ढालता ही रहा, काव्य बना कर जिसे, उसकी ही कहानी में न बन सका, कोई किरदार।

कहानी को लिखना 
उसका कोई किरदार भी बनना है, 
कविता लिखने में 
उसके पद्य में ही है कवित्व। 

उस रचनाकार ने कहा- 
सृजन से क्या परिवाद, 
उपालंभ बस यह कि 
ढालता ही रहा, काव्य बना कर जिसे, 
उसकी ही कहानी में न बन सका, कोई किरदार।
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जैसे कभी प्रकृति के किसी संयोग में, ग्रीष्म में चली आती है वर्षा, लेकर हिम अपने अंक में, दे जाती है वासंती शिशिर का रोमांच, वैसे ही जब कभी नियति के व्यतिक्रम में, ताप घनीभूत हो जाए, संताप सा, तृषा हो रहे, दुष्पूर, अदम्य, तो ले आना सहसा कुछ बूँदें और बिंदु, अभिलाषाओं के जल के.

जैसे कभी प्रकृति के किसी संयोग में,
ग्रीष्म में चली आती है वर्षा,
लेकर हिम अपने अंक में,
दे जाती है वासंती शिशिर का रोमांच,
वैसे ही जब कभी नियति के व्यतिक्रम में,
ताप घनीभूत हो जाए, संताप सा,
तृषा हो रहे, दुष्पूर, अदम्य, 
तो ले आना सहसा कुछ बूँदें और बिंदु, 
अभिलाषाओं के जल के.
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मेरे पाखी! मैं आजीवन अपने बचपन की अमराई और प्रौढ़पन की बोधिवृक्ष के बीच डोलता रहा हूँ, "न यत:, न तत:।" तुम भोजपत्र के वृक्ष पर अपनी चहचहाहट लिखना, मैं तेरी छाँव मैं बैठा तुम्हें सुनूँगा, सपने बुनूँगा, जगूँगा, तब जब आसमान में न सूरज होगा, न चाँद, न दिन होगा, न रात, मेरे विहंग!

मेरे पाखी!
मैं आजीवन अपने बचपन की अमराई और प्रौढ़पन की बोधिवृक्ष के बीच डोलता रहा हूँ, "न यत:, न तत:।"
तुम भोजपत्र के वृक्ष पर अपनी चहचहाहट लिखना,
मैं तेरी छाँव मैं बैठा तुम्हें सुनूँगा, सपने बुनूँगा,
जगूँगा, तब जब आसमान में न सूरज होगा, न चाँद,
न दिन होगा, न रात,
मेरे विहंग!
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जीवन में जब हो ऐसा, हो तुहिन की अंतिम रात। तुम ही बोलो, इस रजनी का भला कौन प्रभात।।  ओसबिंदु का जीवन है, अंधकार से पौ फटने तक,  निशा-उषा के मध्य भी तो, चलते कितने झंझावात।  मन:कामना अपना आकर्षण रचती है, पर सच यह,  वह स्वयं आकृष्ट हो रहती, यही तो अनसुलझी बात।

जीवन में जब हो ऐसा, हो तुहिन की अंतिम रात।
तुम ही बोलो, इस रजनी का भला कौन प्रभात।। 

ओसबिंदु का जीवन है, अंधकार से पौ फटने तक, 
निशा-उषा के मध्य भी तो, चलते कितने झंझावात। 

मन:कामना अपना आकर्षण रचती है, पर सच यह, 
वह स्वयं आकृष्ट हो रहती, यही तो अनसुलझी बात।
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कौन कसौटी ले बैठे हो विश्लेषक, सोना न कोई खरा यहाँ, कैसे यहाँ एक पक्ष में असत्य दिखे, दूजे पक्ष में ईमान दिखे।

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अपना धर्म सभी को दिव्य दिखे, वहीं उसे भगवान दिखे। हर धर्म में कुछ अधर्म दिखे, उसमें भी सब असमान दिखे।। हर धर्म कुछ संगत और असंगत, समान कभी न हो सकते,  एक सृजन के सोपान रचे, दूजे में विध्वंस का ही मान दिखे।

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कहीं खबर थी आज गगन में छह ग्रह एक रेख में आए। दृष्टि हमारी ऐसी तिर्यक्, जो वंकिम चंद्र पर रुक जाए।। विरल योग है खगोल का माना, ज्योतिर्विद् जानें उसको,  पर चंद्र मनस् जब, तारा कैसे अन्य नयन का बन पाए।

कहीं खबर थी आज गगन में छह ग्रह एक रेख में आए।
दृष्टि हमारी ऐसी तिर्यक्, जो वंकिम चंद्र पर रुक जाए।।

विरल योग है खगोल का माना, ज्योतिर्विद् जानें उसको, 
पर चंद्र मनस् जब, तारा कैसे अन्य नयन का बन पाए।