आईने में वो जब सँवरता है
रंग आईने का निखरता है
तारे तकते हैं उस दरीचे को
जिस दरीचे में चाँद उभरता है
नज़र आता है आईने में तू
ख़ुदपे तेरा गुमाँ गुज़रता है
जितना होना था होके देख लिया
अब न होने से कौन डरता है
चल दिया वो भी वक़्त की मानिंद
वक़्त किसके लिए ठहरता है
-राजेश रेड्डी
ग़ज़ल
मछलियाँ दरिया से हैं बेज़ार सब
जाल में जाने को हैं तैयार सब
आँख में आँसू अभी आए ही थे
चल दिए उठ कर मिरे ग़मख़्वार सब
बोझ सारा दोस्तों पर आ पड़ा
मर गए जाकर कहाँ अग़यार सब
साया-ए-दीवार में बैठा ही था
जा छुपे साये पस-ए-दीवार सब
- राजेश रेड्डी
ग़ज़ल
इक सफ़र रहगुज़र से बाहर हो
एक परवाज़ पर से बाहर हो
शह्र इक ढूँडते हैं नक़्शे में
वो जो ख़ौफ़-ओ-ख़तर से बाहर हो
उसकी तन्हाई का न आलम पूछ
घर में रह कर जो घर से बाहर हो
किसलिए अब कोई पढ़े अख़बार
जब ख़बर ही ख़बर से बाहर हो
- राजेश रेड्डी