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Guru siyag's Siddha Yoga(GSSY):A Silent Revolution! Spritual Science :http //www.the-comforter.org

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calendar_today07-02-2022 21:04:51

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दिव्य दीक्षा

जैसे पहले बताया गया, मैं गुरुपूजन, गुरुध्यान किया करता था। एक दिन सायंकाल मैं भगवान नित्यानन्द के दर्शन को गया। दर्शन के बाद गुरुदेव मुझसे हमेशा 'अब जाता' ऐसा पूछते थे। आज कुछ नहीं पूछा। सो मैं वहीं ठहर गया। श्री गुरुध्यान के परम आनन्द में रात बीती। १५ अगस्त, १९४७

दिव्य दीक्षा जैसे पहले बताया गया, मैं गुरुपूजन, गुरुध्यान किया करता था। एक दिन सायंकाल मैं भगवान नित्यानन्द के दर्शन को गया। दर्शन के बाद गुरुदेव मुझसे हमेशा 'अब जाता' ऐसा पूछते थे। आज कुछ नहीं पूछा। सो मैं वहीं ठहर गया। श्री गुरुध्यान के परम आनन्द में रात बीती। १५ अगस्त, १९४७
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मैंने प्यार से, धीरे से कहा, 'गुरुदेव, मेरा कितना दिव्य भाग्य है! मुझे परमप्राप्ति हुई है। आप इन पादुकाओं में पूर्णरूप में रहिए और मुझे उन्हें पूजने की आज्ञा दीजिए। मैं कोई भी विधि नहीं जानता हूँ।' मेरे ऐसा कहते ही वे हॉल के पश्चिम में गये। थोड़े फूल लाए, साथ-साथ दो केले, दो-तीन

मैंने प्यार से, धीरे से कहा, 'गुरुदेव, मेरा कितना दिव्य भाग्य है! मुझे परमप्राप्ति हुई है। आप इन पादुकाओं में पूर्णरूप में रहिए और मुझे उन्हें पूजने की आज्ञा दीजिए। मैं कोई भी विधि नहीं जानता हूँ।' मेरे ऐसा कहते ही वे हॉल के पश्चिम में गये। थोड़े फूल लाए, साथ-साथ दो केले, दो-तीन
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तदनन्तर गुरुदेव पास आ गये। उन्होंने मेरे अंगों से अपने अंग सटा लिये। मेरा शरीर एक नये आश्चर्य को पा कर स्तब्ध हो गया। सामने पश्चिम की ओर मुख करके मैं खड़ा था। मेरे शरीर से लग कर पूर्व की ओर मुख करके गुरुदेव खड़े थे। मैं नेत्र खोल कर देखने लगा। देखा कि गुरुदेव के शाम्भवी मुद्रा

तदनन्तर गुरुदेव पास आ गये। उन्होंने मेरे अंगों से अपने अंग सटा लिये। मेरा शरीर एक नये आश्चर्य को पा कर स्तब्ध हो गया। सामने पश्चिम की ओर मुख करके मैं खड़ा था। मेरे शरीर से लग कर पूर्व की ओर मुख करके गुरुदेव खड़े थे। मैं नेत्र खोल कर देखने लगा। देखा कि गुरुदेव के शाम्भवी मुद्रा
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अबकी चंचलता में शुष्कता नहीं, मूढ़ता नहीं, क्लेश नहीं, उदासी, जड़ता, चिन्ता नहीं। अब आनन्द पूरा, मस्ती पूरी, उमंग पूरी, उत्साह पूरा था। हाँ, मन दौड़-दौड़ कर बार-बार श्री गुरुपादुकाओं की तरफ देखता, हर्ष-उमंग से फूलता। 'गुरुपादुकाष्टकम्' की ये पंक्तियाँ गुनगुनाता रहता :

ज्याच्या

अबकी चंचलता में शुष्कता नहीं, मूढ़ता नहीं, क्लेश नहीं, उदासी, जड़ता, चिन्ता नहीं। अब आनन्द पूरा, मस्ती पूरी, उमंग पूरी, उत्साह पूरा था। हाँ, मन दौड़-दौड़ कर बार-बार श्री गुरुपादुकाओं की तरफ देखता, हर्ष-उमंग से फूलता। 'गुरुपादुकाष्टकम्' की ये पंक्तियाँ गुनगुनाता रहता : ज्याच्या
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चलते-चलते वज्रेश्वरी मन्दिर जा पहुँचा। महाशक्ति योगमाता वहाँ वजाभवानी के नाम से प्रसिद्ध हैं। माताजी के मन्दिर के पीछे एक छोटा दत्त मन्दिर है। मैं हमेशा वहाँ रहा करता था। दिन में एक बार भोजन को माताजी के मन्दिर के महंत बाबासाहब के यहाँ जाता था। वे महंत बड़े सम्मान से मुझे

चलते-चलते वज्रेश्वरी मन्दिर जा पहुँचा। महाशक्ति योगमाता वहाँ वजाभवानी के नाम से प्रसिद्ध हैं। माताजी के मन्दिर के पीछे एक छोटा दत्त मन्दिर है। मैं हमेशा वहाँ रहा करता था। दिन में एक बार भोजन को माताजी के मन्दिर के महंत बाबासाहब के यहाँ जाता था। वे महंत बड़े सम्मान से मुझे
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सब ॐ रे' कह कर एकात्मता का बोध कराया।

यदि न देनेवाला देने लगे तो लेनेवाला लेते लेते थक जाता है। ऐसा ही मेरे साथ हो गया। हृदयाकाश के अनन्त काल से अब तक अनन्त योनियों में भटकानेवाले अनन्त शब्दों को, मैं-मेरी रूप काम-क्रोध-मोहयुक्त अनन्त प्रकार की अशुचि भावनाओं को, 'शिवोऽहम् रे...

सब ॐ रे' कह कर एकात्मता का बोध कराया। यदि न देनेवाला देने लगे तो लेनेवाला लेते लेते थक जाता है। ऐसा ही मेरे साथ हो गया। हृदयाकाश के अनन्त काल से अब तक अनन्त योनियों में भटकानेवाले अनन्त शब्दों को, मैं-मेरी रूप काम-क्रोध-मोहयुक्त अनन्त प्रकार की अशुचि भावनाओं को, 'शिवोऽहम् रे...
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मेरे गुरुदेव ने एक बार शिवराम सेठ को एक कथा सुनाई थी। मुझे उस समय वह याद आ गयी, क्योंकि मेरी भी वही स्थिति थी। कथा ऐसी है-एक कर्महीन, दरिद्री कौड़ी के मोल का मनुष्य था। कहीं भी जाए, उसकी दरिद्रता और कर्महीनता भी उसके साथ जाती थी। यदि वह भाग्यहीन दरिद्री राज्य के किसी उदार

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मन की भ्रमयुक्त स्थिति

ऐसा होते-होते बहुत रात हो गयी। सोने का प्रयास किया, परन्तु निद्रा नहीं आयी। सिर भारी था। इस अवस्था में प्रातःकाल के चार बजे। स्नान किया। पद्मासन लगा कर पूर्ववत् श्री गुरुध्यान आरम्भ किया। ध्यान में बैठते ही चित्त पूर्ण अन्तर्मुखी बना। आसनस्थ शरीर घूमने

मन की भ्रमयुक्त स्थिति ऐसा होते-होते बहुत रात हो गयी। सोने का प्रयास किया, परन्तु निद्रा नहीं आयी। सिर भारी था। इस अवस्था में प्रातःकाल के चार बजे। स्नान किया। पद्मासन लगा कर पूर्ववत् श्री गुरुध्यान आरम्भ किया। ध्यान में बैठते ही चित्त पूर्ण अन्तर्मुखी बना। आसनस्थ शरीर घूमने
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दिव्य रूपान्तरण

अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश, चित्मय कोश और सात्मय कोश।

महर्षि श्री अरविन्द की भविष्यवाणी है 'आगामी मानव जाति दिख्य शरीर धारण करेगी।' यह फिजिकल बॉडी डिवाइन रूप में बदल जाएगी। यह साइंस वाले बड़े आश्चर्य कर रहे हैं, यह क्या कह रहा

दिव्य रूपान्तरण अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनंदमय कोश, चित्मय कोश और सात्मय कोश। महर्षि श्री अरविन्द की भविष्यवाणी है 'आगामी मानव जाति दिख्य शरीर धारण करेगी।' यह फिजिकल बॉडी डिवाइन रूप में बदल जाएगी। यह साइंस वाले बड़े आश्चर्य कर रहे हैं, यह क्या कह रहा
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मैं झूले पर शान्त बैठ गया। आज बाबू प्रातः ही जल्दी आ गया। मुस्कराते हुए आ रहा था। यह देख कर कि बाबा ठीक हैं उसको बहुत सन्तोष हुआ। उसने देखा, न तो बाबा की मौत हुई है और न वे पागल बने हैं। नमस्कार
करके वह सामने बैठ गया। मेरा एक प्यारा पाटिल नित्यप्रति झाडू ले कर वहाँ सफाई करता था।

मैं झूले पर शान्त बैठ गया। आज बाबू प्रातः ही जल्दी आ गया। मुस्कराते हुए आ रहा था। यह देख कर कि बाबा ठीक हैं उसको बहुत सन्तोष हुआ। उसने देखा, न तो बाबा की मौत हुई है और न वे पागल बने हैं। नमस्कार करके वह सामने बैठ गया। मेरा एक प्यारा पाटिल नित्यप्रति झाडू ले कर वहाँ सफाई करता था।
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भयानक प्रलयकालीन चीत्कारें सुनने लगा। मैं पूरे होश में था। परन्तु पागलपन का भाव भी प्रत्यक्ष के समान देख रहा था। थोड़ी देर में मृत्यु की याद आयी। मैं आसन पर बैठ गया। बैठते ही पद्मासन लग गया। मैंने चारों तरफ देखा। चहुँ ओर अग्नि की ज्वाला फैल गयी थी। सारा ब्रह्माण्ड जलने लगा। जलते

भयानक प्रलयकालीन चीत्कारें सुनने लगा। मैं पूरे होश में था। परन्तु पागलपन का भाव भी प्रत्यक्ष के समान देख रहा था। थोड़ी देर में मृत्यु की याद आयी। मैं आसन पर बैठ गया। बैठते ही पद्मासन लग गया। मैंने चारों तरफ देखा। चहुँ ओर अग्नि की ज्वाला फैल गयी थी। सारा ब्रह्माण्ड जलने लगा। जलते
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साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना, महाकठिन है। किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया तो हम उसे गुरु मान लेते हैं, थोड़ा प्रवचन सुनाया तो उसे गुरु मान लेते हैं, किसी ने मन्त्र दिया या तन्त्र की विधि बतलायी तो उसे गुरु मान लेते हैं। इस तरह अनेक जनों में गुरुभाव करके

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गुरुजन संसार के व्यवहार को भलीभाँति समझते हैं। अदृष्ट के नियमों को पूर्णतया जानते हैं। वे परमात्मा के ज्ञान से पूर्ण परिचित रहते हैं। परमार्थ में पूर्ण कुशल और व्यवहार में अति ही सयाने होते हैं। ऐसे गुरुजनों के आश्रय में रहनेवाले शिष्यगण महान संकट को भी सहज में पचा डालते हैं।

गुरुजन संसार के व्यवहार को भलीभाँति समझते हैं। अदृष्ट के नियमों को पूर्णतया जानते हैं। वे परमात्मा के ज्ञान से पूर्ण परिचित रहते हैं। परमार्थ में पूर्ण कुशल और व्यवहार में अति ही सयाने होते हैं। ऐसे गुरुजनों के आश्रय में रहनेवाले शिष्यगण महान संकट को भी सहज में पचा डालते हैं।
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आप वेद, वेदान्त, शास्त्र, मन्त्र इत्यादि साधन से साध्य हैं।

हे माँ कुण्डलिनी! आप आनन्द-शक्ति हैं। आप योग हैं। योगाङ्ग हैं। समाधि का अर्थ हैं। आपका नाम निर्विकल्पा है। आप इस मानव देह की परम-आश्रया हैं। हे चितिमयी माता कुण्डलिनी ! आप श्री परमगुरुओं की शुद्धात्मा गुरु हैं।

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साधना

सिद्धों की कृपा प्राप्त होते ही साधना होने लगती है। किसी को साधना की अनुभूति जल्दी होती है, किसी को कुछ देर से। यदि अन्तरंग में सूक्ष्मरूप से साधना होती हो तो अनुभव में नहीं आती। अनुभव न मिलने पर भी साधक को अपनी साधना का सम्मान से, सत्कार से, श्रद्धा से, पूर्ण प्रेम से

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'गुरु'? .....'गुरु-जो निर्गुण निराकार ईश्वर के सगुण साकार रूप होते हैं।'
'जो परिवर्तन मुझमें आया, वो मानव मात्र में आयेगा। 'मनुष्य', मनुष्य है और मैंने लाखों को यह परिवर्तन मूर्तरूप से करवाकर बता दिया। 'गुरु' में गुरुत्वाकर्षण होता है इसलिए गुरु का यहाँ (आज्ञाचक्र) पर ध्यान कराया

'गुरु'? .....'गुरु-जो निर्गुण निराकार ईश्वर के सगुण साकार रूप होते हैं।' 'जो परिवर्तन मुझमें आया, वो मानव मात्र में आयेगा। 'मनुष्य', मनुष्य है और मैंने लाखों को यह परिवर्तन मूर्तरूप से करवाकर बता दिया। 'गुरु' में गुरुत्वाकर्षण होता है इसलिए गुरु का यहाँ (आज्ञाचक्र) पर ध्यान कराया
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