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त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।

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calendar_today03-06-2020 00:57:35

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अथ नवमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाच न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9।। हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते।(9)

अथ नवमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाच

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9।।

हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते।(9)
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अथ नवमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाच मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।10।। हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है।(10)

अथ नवमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाच

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।10।।

हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है।(10)
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अथ नवमोऽध्यायः श्रीभगवान उवाच अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11।।

अथ नवमोऽध्यायः श्रीभगवान उवाच

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11।।
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अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।12।। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।(12)

अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।12।।

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।(12)
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अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।13।। परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।

अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।13।।

परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।
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अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते।।14।।

अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते।।14।।
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अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्तवेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।15।।

अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्तवेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।15।।
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अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच अहं क्रतुरहं यज्ञः स्धाहमहमौषधम्। मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।16।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।(16)

अथ नवमोध्याय: श्रीभगवान उवाच

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्धाहमहमौषधम्।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।16।।

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।(16)
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अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।17।। इस सम्पूर्ण जगत का धाता अर्थात् धारण करने वाला और कर्मों के फल को देने वाला, पिता माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।(17)

अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।17।।

इस सम्पूर्ण जगत का धाता अर्थात् धारण करने वाला और कर्मों के फल को देने वाला, पिता माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।(17)
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अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।18।।

अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।18।।
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अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।19।। मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् असत् भी मैं ही हूँ।(19) (अनुक्रम)

अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।19।।

मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् असत् भी मैं ही हूँ।(19) (अनुक्रम)
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अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक- मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।20।।

अथनवमोअध्याय: श्री भगवान उवाच

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।20।।
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच ते तं भुक्तवा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

ते तं भुक्तवा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।
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अथनवमोअध्याय:श्रीभगवानउवाच अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।22।। जोअनन्य प्रेम भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करतेहुए निष्कामभाव से भजते हैउन नित्यनिरन्तर मेराचिन्तन करनेवाले पुरुषोको योगक्षेम मैस्वयं प्राप्त करदेता हू

अथनवमोअध्याय:श्रीभगवानउवाच
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।22।।

जोअनन्य प्रेम भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करतेहुए निष्कामभाव से भजते हैउन नित्यनिरन्तर मेराचिन्तन करनेवाले पुरुषोको योगक्षेम मैस्वयं प्राप्त करदेता हू
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।23।। हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किन्तु उनका पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है।

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।23।।

हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किन्तु उनका पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है।
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।।24।। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।।24।।

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।25।।

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।25।।
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।26।।

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।26।।
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।27।। हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है वह सब मुझे अर्पण कर।(27)

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवान उवाच

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।27।।

हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है वह सब मुझे अर्पण कर।(27)
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अथनवमोअध्याय: श्रीभगवानउवाच शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामपैश्यसि।28। इसप्रकार जिसमे समस्त कर्म मुझ भगवानके अर्पण होते हैऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्तहो जाएगा और उनसे मुक्तहोकर मुझकोही प्राप्त होगा

अथनवमोअध्याय: श्रीभगवानउवाच

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामपैश्यसि।28।

इसप्रकार जिसमे समस्त कर्म मुझ भगवानके अर्पण होते हैऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्तहो जाएगा और उनसे मुक्तहोकर मुझकोही प्राप्त होगा